कठपुतली अत्यंत प्राचीन नाटकीय खेल है जो समस्त सभ्य संसार में-प्रशांत महासागर के पश्चिमी तट से पूर्वी तट तक-व्यापक रूप प्रचलित रहा है। यह खेल गुड़ियों अथवा पुतलियों द्वारा खेला जाता है। भारतीय कठपुतलियों का यूरोपीय कठपुतलियों की अपेक्षा बहुत अधिक प्राचीन इतिहास है, किंतु संचालनतंत्र की दृष्टि से वे यूरोपीय कठपुतलयों की तुलना में प्राथमिक और सरल हैं।
भारत में कठपुतलियों के खेल का सबसे प्राणवंत और वैविध्यपूर्ण प्रदर्शन राजस्थानी नट ही करते हैं। वे स्वयं चलते-फिरते रंचमंच हैं ।अनेक विद्वानों का मत है कि नाटक का आरंभ कठपुतली के खेल से ही हुआ। डा। पिशेल इन विद्वानों में अग्रणी हैं और उनका विचार है कि कठपुतली के खेल की उत्पत्ति भारत में ही हुई जहाँ से वह बाद में पाश्चात्य देशों में फैला।
भारत में लगभग सभी प्रकार की पुतलियां पाई जाती हैं , पारंपरिक नाटक की भांति ही पुतली नाटय महाकाव्यों और दंत कथाओं पर आधारित होते हैं तथा देश के विभिन्न प्रांतों को पुतलियों की अपनी एक खास पहचान होती है । । भारत में धागा पुतलियों की परंपरा अत्यंत प्राचीन और समृद्ध है ।
अनेक जोड़ युक्त अंग तथा धागों द्धारा संचालन इन्हें अत्यंत लचीलापन प्रदान करते हैं । जिस कारण ये पुतलियां काफी लचीली होती है ।
राजस्थान की परंपरागत पुतलियों की कठपुतली कहते हैं,उड़ीसा की धागा पुतली को कुनढेई,कर्नाटक की धागा पुतली को गोम्बेयेट्टा,केरल में पारंपरिक पुतली नाटकों को पावाकूथू,दस्ताना पुतली को भुजा , कर या हथेली पुतली ,बिहार की पारंपरिक छड़ पुतलियों को यमपुरी के नाम से जाना जाता है तो वहीं आन्ध्र प्रदेश की छाया नाटक को तोलु बोम्मालट्टा कहते हैं ।