इसे जानने के लिए आइये टाइम मशीन में बैठ के चलते है थोड़ा पीछे जब भारत में अंग्रेजों का राज था ,तब यहाँ अंग्रेजी हुकूमत का सिक्का बोलता था। बात है 1868 की जब अंग्रेजी हुकूमत के पैर बरेली की धरती पर अच्छे से जमे हुए थे और उनके परिवार यहाँ बस गए थे। इसी समय 1868 में अंग्रेजों ने इस जगह जो, की उस समय भी पुरे बरेली का मुख्य केंद्र होता था, पर एक बड़े से भवन का निर्माण करवाया , जिसका नाम था टाउन हॉल। इसका निर्माण अंग्रेजों ने सरकारी दफ्तर तथा सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए बनाया था ।1868 में इसी टाउन हॉल में एक पुस्तकालय की स्थापना की गयी जिसका उपयोग वे खुद तथा आम लोग भी कर सकते थे । चूँकि उर्दू में पुस्तकालय को कुतुबखाना कहते हैं , इसलिए बाद में इस जगह का नाम टाउन हॉल की जगह बोलचाल की भाषा में कुतुबखाना पड़ गया और आज इसी नाम से ठीक बरेली शहर के बीच में स्तिथ एक बाजार के रूप में जाना जाता है।
1962 तक इस भव्य इमारत का हाल ख़राब हो चुका था।
कारण था इसकी देख भाल , तब आजादी के बाद 1962 में कुतुबखाना पुस्तकालय को गिरा दिया गया और नगर निगम ने यहाँ एक बाजार बसा दिया जो आज कुतुबखाना बाजार के नाम से जाना जाता है ।यह बरेली शहर का सबसे मुख्य और बड़ा बाजार है जिसमे कपड़ों से लेकर दवाओं, मशीनरी, खानपान,बर्तनो का मुख्य बाजार , जेवर और मीनाकारी का काम ,शहर की फल और सब्ज़ी मंडी आदि हर तरह के सामान का होलसेल तथा खुदरा व्यवसाय होता है , चाहे जो भी सामान हो बरेली के क़ुतुबखाना बाजार में आपको मिल जायेगा ।
इसी स्थान पर बाद में एक घंटाघर बनवाया गया तथा इसके इर्दगिर्द चार पहिया और दो पहिया वाहनों पार्किंग स्थल बना दिया गया।
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