लोक साहित्य में लोकगीतों को अपना अलग ही आनंद है. एक समय में इनका बड़ा महत्व था. किसी भी उत्सव में महिलाएँ ढोलक की थाप पर लोकगीत अवश्य गाती थीं और लोक नृत्य भी करती थीं. संगीत के अतिरिक्त इसमें हंसी मजाक का भी मिश्रण होता था. अब इलैक्ट्रोनिक फ़िल्मी संगीत के आगे यह विधा दम तोड़ रही है. इस धरोहर को भी सहेज कर रखने की आवश्कता है.
लोकगीत मुख्यत: पांच प्रकार के होते हैं : संस्कार गीत, गाथा-गीत (लोकगाथा), पर्वगीत, जीविका गीत और जातीय गीत.
1. संस्कार गीत
लोक भाषा में जन्म उत्सव, मुण्डन, पूजन, जनेऊ, विवाह आदि अवसरों पर गाए जाने वाले लोकगीतों को संस्कार गीत कहते हैं.
जैसे : सोहर (जच्चा), बन्नी, बन्ना, घुड़चढ़ी, गौरी पूजन, जयमाल, विदाई आदि.
2. गाथा-गीत (लोकगाथा)
विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित लोकगाथाओं पर आधारित लोक गीत को लोकगाथा या गाथा-गीत कहते हैं.
जैसे : आल्हा, ढोला, भरथरी, नरसी भगत, बंजारा आदि.
3. पर्वगीत
लोक समाज के द्वारा विशेष पर्वों एवं त्योहारों पर गाये जाने वाले मांगलिक-गीतों को ‘पर्वगीत’ कहते है.
जैसे : राज्य में होली, दिपावली, छठ, तीज, कजरी, रामनवमी, जन्माष्टमी आदि अन्य शुभअवसरों पर गाये जाने वाले गीत पर्वगीत होते हैं.
4. जीविका गीत
देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों द्वारा अपना कार्य करते समय जो गीत गाते जाते हैं उन्हें पेशा गीत कहते हैं.
जैसे : ग्रामीण क्षेत्रों में गेहूं पीसते समय ‘जाँत-पिसाई’, खेत में सोहनी, रोपनी, छत की ढलाई करते समय ‘थपाई’ तथा छप्पर छाते समय ‘छवाई’, आदि गीत जीविका गीत कहलाते हैं.
5. जातीय गीत
ऐसे गीत जिसे समाज के विभिन्न क्षेत्रों की विशेष वर्गों द्वारा सुने और गाये जाते है, उन्हें जातीय गीत कहते हैं.
जैसे : झूमर, बिरहा, प्रभाती, निर्गुण, कहरवा, नौवा भक्कड, बंजारा, आदि.
लोकगीत की उत्पत्ति कैसे हुई?
ग्रामीण क्षेत्रों में लोकगीत की उत्पत्ति समाज के लोगों द्वारा ही की जाती है. जब इसे पूरे समाज, क्षेत्र या राज्य द्वारा गाया जाने लगता है तो इसकी रचना किसने की थी उसे भुला दिया जाता है और उसे लोकगीत कहने लगते हैं.
किसी भी देश में लोकगीत की उत्पत्ति कागज़ पर लिखकर प्रकाशन आदि जैसे आधुनिक उपकरणों से नहीं हुई हैं बल्कि ये मौखिक रूप से उत्पन्न होते हैं और मौखिक परम्परा में जीवित रहते हुए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलते रहते हैं.
लोकगीतों की विशेषताएँ :
लोकगीत लोकभाषा में होते हैं और इन्हें लोक समाज के द्वारा गाया जाता है. ये जन समुदाय के गीत होते हैं और मौखिक परम्परा में जीवित रहते हैं. लोकगीत आसान लय में गाए जाते हैं जिससे समाज के सामान्य व्यक्ति भी इन्हें गा सकें. इनकी भाषा भी आसान होती है जिससे समाज के सभी लोग इनका आनंद ले सकें. लोकगीतों में अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग वाद्यों का प्रयोग किया जाता है जैसे कि ढोलक, मंजीरा, चिमटा, झांझ, सारंगी, सिंगी, ढपली, हारमोनियम, खड़ताल, घुंघरू आदि. कई लोकगीतों के साथ लोकनृत्य भी किया जाता है जैसे कि झूमर, बिहू, गरबा आदि.
लोगों को मनोरंजन प्रदान करने के साथ ही लोकगीत किसी भी देश की सभ्यता, संस्कृति और विचारों से परिचय कराते हैं. लोक साहित्य के विकास में भी इनका अत्यधिक योगदान होता है. इन से देश के विभिन्न क्षेत्रों के रीति रिवाज, रहन- सहन, परिवार और रिश्तेदारों से संबंध, मेल-मिलाप, गृहस्थ जीवन की समस्याएं, पर्व, धर्म, संस्कार, इतिहास आदि की पहचान होती है.
अपनी परम्पराओं से प्रेम करने वाली कुछ विदुषी महिलाओं ने इस प्रकार के साहित्य की पुस्तकें प्रकाशित कराई हैं. श्रीमती चंद्रा त्रिपाठी द्वारा संकलित ‘स्वर सरिता’, श्रीमती श्यामलता कर्नावट द्वारा संकलित ‘श्याम रत्नावली’ (हिंदी और राजस्थानी भाषा में) एवं श्रीमती माया श्रीवास्तव द्वारा संकलित ‘माटी के गीत’ पुस्तकें पढ़ने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ. इन सभी का प्रयास प्रशंसनीय है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रचलित बहुत से लोकगीत श्रीमती सुषमा अग्रवाल एवं संगीता अग्रवाल द्वारा उपलब्ध कराए गये हैं.
जानकारी का स्रोत : डॉ शरद अग्रवाल एम् दी
और अधिक विस्तृत जानकारी के लिए कृपया डॉ शरद अग्रवाल की वेबसाइट पर विसिस्ट करें www.hindikahawat.com